बीते वर्षो में श्री कैलाश विजयवर्गीय द्वारा शुरू की गयी दीपदान की परिपाटी के बारे में आज से पचास साल बाद लोग क्या कहेंगे इसके बारे में सोचिये| यकीनी तौर पर ये परिपाटी उस इलाके के लिए विकास का सबब बन चुकी होगी, आने वाले समय में जब इसका रूप वृहत हो जाएगा तब इसे “मिनी इंदौर” की “मिनी दिवाली” के तौर पर देखा जा सकेगा जिसे एक्सपीरियंस करने के लिए देश विदेश से सैलानी आया करेंगे| ये कोई कपोल कल्पना नहीं है, अपनी कॉलोनी में रह रहे बड़े बुजुर्गो से मुलाक़ात कीजिये वो आपको इस तरह के कई उदाहरण गिना देंगे| एक उदाहरण तो उत्तर प्रदेश में बसे आगरा की राम बारात का भी है, आगरा का नगर निगम इस मशहूर राम बारात को विकास कार्यो के लिए इस्तेमाल करता है| होता ये है की हर साल राम बारात को रिसीव करने के लिए जनक पुरी शहर के अलग अलग इलाको में सजाई जाती है, जिस इलाके में जनक पुरी सजती है उस इलाके की सडको और बिजली व्यवस्था का विकास अपने आप हो जाता है| साथ ही साथ स्थानीय टेंट हाउस मालिक और अन्य लोग भी अपने सजावट के सामानों को प्रचार कर पाते हैं| इस तरह के वृहत आयोजनों का Multiplier बहुत गहरा होता है और समाज के कई हिस्सों को परोक्ष और अपरोक्ष रूप से प्रभावित करता है| कैलाश विजयवर्गीय जी डाली गई इस परंपरा का भविष्य भी उन दियो की तरह ही जाज्वल्यमान है जिन्होंने इंदौर के आकाश में एक अनूठी रश्मि बिखेरी थी|
इक्कीसवी सदी में
इंदौर की नयी Anthropology रच रहे हैं
शहर के नागरिक और लोकप्रिय नेता
कहते हैं हर शहर
की एक तासीर, एक अलहदा तहज़ीब होती है, वहां के वाशिंदे तिनका तिनका कर के बनाते
हैं| फिर इस तहज़ीब पर इतिहासकारों और कलमनिगारो की नज़र पड़ती है और मशहूर हो जाती
है लखनऊ की गलिया और बनारस के घाट| दुनिया के सारे Leading Anthropologists मानते है की शहर में पनप रहे हर Culture
और Sub Culture का वहां रह रहे लोगो पर बड़ा
गहरा असर पड़ता है| चलिए थोड़ी देर के लिए राजनीति, महंगाई, किसान आन्दोलन और चुनाव
सब कुछ भूल जाते है और आँखे बंद कर के महसूस करते हैं की हम इंदौर के वासी है|
जैसे ही हम आँखे
बंद करते है दो खबरे हमारे दिमागे में आती है, पहली कैलाश विजयवर्गीय जी द्वारा
आयोजित किया गया दीपदान महोत्सव और दूसरा Walkathon, ये दोनों ही इवेंट्स अभी ज्यादा पुराने नहीं है, मगर पिछले साल की तुलना
में दोनों इवेंट्स के नए संस्करण को पहले से ज्यादा प्यार मिला है| यहाँ हमें ये नहीं
भूलना चाहिए की पिछले साल कोरोना महामारी के बाद इंदौरवासियों का सामजिक जीवन एक
दम अस्तव्यस्त हो गया था|
अयोध्या की पंचकोसी,
मथुरा की गोवर्धन परीक्रमा और इंदौर का Night Walkathon,
कोई समानता है क्या ??
इंदौर में हुए
दीपदान और Night Walkathon को अगर Anthropological
viewpoint से देखा जाए तो हम पाते है की इंदौर वासियों ने नागरिक कर्तव्यो
और इंसानियत के लिए नियत किये गए कर्तव्यो को निजी धार्मिक विचारो से जोड़कर दो आयोजनों
की परंपरा शुरू की है| जिस तरह Night Walkathon
हज़ारों नगर निगम कर्मियों की निर्बाध सेवाओ को एक ट्रिब्यूट प्रदान करता है
ठीक उसी तरह गोवर्धन परिक्रमा बृज-भूमि
में विष्णु अवतार के रूप में अवतरित हुए श्री कृष्ण की मानव रूप में अर्जित की गयी
उपलब्धियों को सेलिब्रेट करती है| अगर वैज्ञानिक और चिकित्सकीय तौर पर देखा जाए तो
चांदनी रात में नंगे पाँव गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा Human Beings को बदलते मौसम के साथ दोस्ती करना सिखाती है | इसी परिक्रमा का एक वृहत
स्वरुप है बृज चौरासी कोस की परिक्रमा जहाँ एक आम आदमी को मौका मिलता है की वो शहर
के दूसरे कोनो में बसे अपने मित्रो और रिश्तेदारों से मिल सके, इसके अलावा इन
परिक्रमाओ की एक व्यावसायिक महत्ता भी है, ये परिक्रमाये, स्थानीय मंदिरों और शहर
में बसे दूरस्थ स्थानों के मंदिरों की अर्थव्यवस्था का संबल भी है|
अब समय आ गया है
की “खालिस इन्दोरी मानुसों को अपनी इस नयी संस्कृति पर गर्व करना चाहिये और छोटे
छोटे आयोजनों से बन रही शहर की इस नयी पहचान को अगले स्तर पर ले जाने की तैयारी
करनी चाहिए| उम्मीद की जा सकती है आने वाले समय में Night
Walkathon और दीपदान और भी ज्यादा वृहत रूप में सामने आयेंगे
और चार बार के स्वच्छता सर्वे विजेता इंदौर
में पनप रही उस नागरिक संस्कृति का परचम बनेगे जो धीरे धीरे भारतवर्ष में इंदौर की
पहचान बनती जा रही है|