कृषि सुधारो की श्रृंखला के अन्दर किसान क़ानूनो का आना कोई नयी या अप्रत्याशित घटना नहीं थी| करीब पैंतालीस दिन पहले इस क़ानून की कुछ शर्तो को लेकर गतिरोध अवश्य थे मगर ये अंदाजा किसी को नहीं था की सुधारो का ये रथ इस तरह ट्रैक्टर्स के जाम में फँस जायेगा| आज जब माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इस आन्दोलन में दिलचस्पी ली है, तब दो पहलुओं पर निगाह डालना ज़रूरी हो जाता है जिनकी वजह से हालात पैदा हुए|
Negotiation Table पर कृषि मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर की विफलता
तकरीबन
पांच साल पहले स्वर्गीय श्री अरुण जेटली जी के नेतृत्व में भारत सरकार ने जी एस टी
क़ानून पास किया| शुरू में असंतोष था, मगर अरुण जेटली जी ने कुशल और डेमोक्रेटिक लीडर
की तरह हर पक्ष की बात सुनी, हल निकाला और नरेंद्र मोदी सरकार को मिल गयी उनकी
सबसे बड़ी उपलब्धि, जी एस टी अन्तराष्ट्रीय व्यपार में कदम जमाने की कुंजी थी, स्वर्गीय
अरुण जेटली जी ने अथक मेहनत के बाद जी एस टी की मदद से वो eco-system पैदा किया
जिसके लिए देश उन्हें सदियों तक कोटि कोटि प्रणाम प्रस्तुत करेगा|
कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर negotiation table पर पूरी तरह नाकाम रहे, एक अच्छे संवाद को तारीखों की नहीं सिरों की ज़रूरत होती है| कृषि मंत्री संवाद में ये सिरे बनाने में नाकाम रहे, नतीजतन हर तारीख के बाद बस आरोप प्रत्यारोप के दौर बढे| जानकार बताते हैं की श्री अरुण जेटली ने हर बार ट्रेड आर्गेनाइजेशन को ऐसे मुद्दे पर सोचने के बारे में कहा जो उनके लिए फायदेमंद थे| वर्तमान परिपेक्ष्य में श्री नरेन्द्र सिंह तोमर इस काम में असफल रहे और मीडिया की बेसिर-पैर की रिपोर्टिंग ने आग में घी का काम किया|
जी एस टी के implementation के दौरान हजारो ट्रेड आर्गेनाइजेशन को एक साथ और इंडिविजुअल लेवल पर एड्रेस करते समय माननीय अरुण जेटली जी के ऑफिस ने हमेशा उन दरवाजों को खुला रखा जहाँ कोई भी difference of opinion इस स्तर तक ना पहुंचे की आन्दोलन या थर्ड पार्टी इंटरवेंशन की नौबत आये| इस बार ये बातचीत पूरी तरह क्लोज एंडेड दिखाई दी, "कलेक्टिव बार्गेन" का जवाब " पॉवर बार्गेन" बस इसी रवैये के साथ तारीख पर तारीख पड़ती रही|
भोंपू मीडिया की निकम्मी रिपोर्टिंग
पिछले कई
सालो से आरोप लगते रहे हैं की प्रधानमंत्री मोदी मीडिया के बड़े हिस्से में अच्छा
ख़ासा दखल रखते हैं और उन्हें कठपुतली की तरह चलाते हैं वगैरा वगैरा| मगर किसान
आन्दोलन ने साबित कर दिया की ऐसा कुछ नहीं है| टी आर पी युद्ध के बदसूरत इल्जामो
की कीचड़ में लिपटे हुए कई चैनल्स ने किसान दलों के खेमो में जाकर पिज़्ज़ा, गीजर और
पार्टी जैसे हास्यास्पद मुद्दों को कवर किया जिनकी वजह से किसान आहत हुए और गुस्सा
भडकता गया|
मीडिया के ज़िम्मेदार लोगो को चाहिए था की वो मोदी जी को बातचीन की विफलता के बारे में चेताते| स्वर्गीय अरुण जेटली के तरीके याद दिलाते| मीडिया के लोग चाहते तो भाजपा कार्यकर्ताओं के उन प्रयासों को सामने लाते जिनके अंतर्गत उन्होंने किसान कानूनों के लिए विश्वास का माहोल बनाने की | अगर ये दो काम हो जाते तो आज नज़ारा कुछ और ही होता| हम ये बात इसलिए कह सकते हैं क्यूंकि जी एस टी के समय अरुण जेटली जी ने अपने सटीक बयानों से हमेशा मीडिया को सकारत्मक रखा था, उनकी वजह से मीडिया कैमरों के पीछे खड़े कई शरारती तत्वों के मंसूबे कामयाब नहीं हो पाए थे|
निष्कर्ष
दोनों
पह्लुओ पर गौर करके दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं| कृषि क़ानून को लेकर निगोशिएट
कर रहे प्रतिनिधिमंडल में प्रशासकीय क्षमता और लीडरशिप क्वालिटी दोनों की कमी है|
ये दोनों क्षमताये स्वर्गीय श्री अरुण जेटली में थी जिन्होंने जी एस टी जैसे जटिल
कानून को भी “सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय” बना कर पास करवा दिया था| दूसरा ये भी
कहा जा सकता है की लगातार किसानो के चरित्रहनन पर फोकस करके और उनके sacrifice को
oversight करके पोपुलर मीडिया के शरारती तत्वों ने इस आन्दोलन की आग में घी डाल
दिया है जिसकी लौ ठंड के मौसम में किसानो के इरादों को तपा रही है और जिसकी लपट अब
गणतंत्र दिवस पर राजपथ में भी नज़र आ सकती है|
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